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वैश्वा॑नर॒ तव॒ धामा॒न्या च॑के॒ येभिः॑ स्व॒र्विदभ॑वो विचक्षण। जा॒त आपृ॑णो॒ भुव॑नानि॒ रोद॑सी॒ अग्ने॒ ता विश्वा॑ परि॒भूर॑सि॒ त्मना॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vaiśvānara tava dhāmāny ā cake yebhiḥ svarvid abhavo vicakṣaṇa | jāta āpṛṇo bhuvanāni rodasī agne tā viśvā paribhūr asi tmanā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वैश्वा॑नर। तव॑। धामा॑नि। आ। च॒के॒। येभिः॑। स्वः॒ऽवित्। अभ॑वः। वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒। जा॒तः। आ। अ॒पृ॒णः॒। भुव॑नानि। रोद॑सी॒ इति॑। अग्ने॑। ता। विश्वा॑। प॒रि॒ऽभूः। अ॒सि॒। त्मना॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:3» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विचक्षण) अतिचतुर (वैश्वानर) प्रधानपुरुष ! (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान आप (त्मना) अपने से जिन (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोकों को (आ, अपृणः) अच्छे प्रकार पुष्ट करें, जैसे अग्नि समस्त लोकों वा (रोदसी) आकाश और पृथिवी को अभिव्याप्त है वैसे आप (परिभूः) सब ओर से होनेवाले (असि) हैं, वह आप मनुष्य (तव) आपके (येभिः) जिन (धामानि) जन्म स्थान नामों को (आचके) अच्छे प्रकार कामना करे (ता) उनको जानकर (जातः) प्रसिद्ध होते हुए (स्वर्वित्) प्राप्त सुख (अभवः) हूजिये ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अग्नि के समान धर्म और विद्याओं के प्रकाश करनेवाले सबके बीच प्राणियों के सुख-दुःख की व्यवस्था से अपने समान बुद्धि रखनेवाले हैं, वे सुखी होते हैं ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विचक्षण वैश्वानराग्ने त्वं त्मना यानि विश्वा भुवनान्यापृणो यथाऽग्निर्विश्वा भुवनानि रोदसी चाभिव्याप्नोति तथा त्वं परिभूरसि स त्वं मनुष्यस्तव येभिर्धामान्याचके ता तानि विदित्वा जातः सन् स्वर्विदभवः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वैश्वानर) प्रधानपुरुष (तव) (धामानि) जन्मस्थाननामानि (आ) (चके) समन्तात्कामयेत (येभिः) यैः (स्वर्वित्) प्राप्तसुखः (अभवः) भवेः (विचक्षण) अतिचतुर (जातः) प्रसिद्धः (आ) (अपृणः) पुष्णीयाः (भुवनानि) लोकान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अग्ने) पावकइव वर्त्तमान (ता) तानि (विश्वा) सर्वाणि (परिभूः) यः परितः सर्वतो भवति सः (असि) (त्मना) आत्मना ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अग्निवद्धर्मविद्याप्रकाशकाः सर्वेषु प्राणिषु सुखदुःखव्यवस्थया स्वात्मवद्बुद्धयः सन्ति ते सुखिनो भवन्ति ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे अग्नीप्रमाणे धर्म व विद्येचा प्रकाश करणारी असतात, आपल्या सुख-दुःखाप्रमाणेच सर्व प्राण्यांचे सुख-दुःख समजतात ती सुखी होतात. ॥ १० ॥